बुधवार, 7 सितंबर 2011

नूर तुझ में भी वही है ....

मुकम्मल ज़िन्दगी है हर ख़ुशी है,

मगर तेरी कमी तो आज भी है।


उठा था इक कहीं तूफ़ान सा जब,

जाना मंज़िल कहीं खो चुकी है


अभी जीने है मुझ को ख़्वाब कितने,

फिर ये ज़िंदगी यूं कयूं रुकी है।


नहीं मिलता समंदर का निशां,

नदी को राह तो हरसूं मिली है,


बुरा है उस पर हंसना जो झुका है,

नज़र नीची मगर सोच बड़ी है।


हर शै में जो रोशन है 'शिरीन'
एक नूर तुझ में भी वही है !

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