बुधवार, 30 नवंबर 2011

दर्द नहीं पिघले

चाँद तारे , नए निकले
क़ाफ़िर दर्द कहाँ पिघले

जो मेरी आपबीती थी
तेरी पहचान थी पगले

था गहरा व् समुन्दर सा
थे हम भी डूबकर निकले

कौन सुनता है क्या बोले
ये फ़रियादी के दो जुमले

रोया दिल तो खुश मैं थी
शायद मर्ज़ कुछ संभले!

सोमवार, 7 नवंबर 2011

चाहती हूँ ....

रुख्सत न कर मुझ को मैं चलना चाहती हूँ
बदलते शाम के मंज़र में ढलना चाहती हूँ

कह कर बुज़दिल मुझे यूँ तो इलज़ाम न दो
रुक गई हूँ के बस अब संभलना चाहती हूँ

बंदिश क्यूँ हो ज़माने की मुझे यार क़बूल
नई राह नए मक़सद से चलना चाहती हूँ

बदलना तो ज़रूरी है न बदले तो है रुसवाई
समझ के तेरी दुनिया, मैं बदलना चाहती हूँ

कभी ताक़त कभी हिम्मत कभी वाइज़ सी बातें
लग रहा क्यूँ है सबको मैं बहलना चाहती हूँ