गुरुवार, 24 जनवरी 2013

सुन ले

एक ग़ज़ल मेरी भी सुन ले
आ ज़रा कुछ तार बुन ले

चाहे मत कर तू वफाएं
दर्द के दो फूल चुन ले

सरहदों पर मर मिटा वो
चल उसी की आह सुन ले

कब कहाँ किसकी खता है
छोड़ सब तू अपनी गुन ले

3 टिप्‍पणियां:

  1. नूतन जी बेहद खूबसूरत ग़ज़ल कही है, सभी अशआर शानदार और लाजवाब हैं, दो अशआर और जोड़ देतीं तो ग़ज़ल पूर्ण हो जाती. खैर मुझे बेहद पसंद आई दिली दाद कुबूलें.

    सादर

    अरुन शर्मा
    www.arunsblog.in

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