सोमवार, 7 नवंबर 2011

चाहती हूँ ....

रुख्सत न कर मुझ को मैं चलना चाहती हूँ
बदलते शाम के मंज़र में ढलना चाहती हूँ

कह कर बुज़दिल मुझे यूँ तो इलज़ाम न दो
रुक गई हूँ के बस अब संभलना चाहती हूँ

बंदिश क्यूँ हो ज़माने की मुझे यार क़बूल
नई राह नए मक़सद से चलना चाहती हूँ

बदलना तो ज़रूरी है न बदले तो है रुसवाई
समझ के तेरी दुनिया, मैं बदलना चाहती हूँ

कभी ताक़त कभी हिम्मत कभी वाइज़ सी बातें
लग रहा क्यूँ है सबको मैं बहलना चाहती हूँ

2 टिप्‍पणियां:

  1. बंदिश क्यूँ हो ज़माने की मुझे यार क़बूल
    नए मक़सद से नई राह पे चलना चाहती हूँ

    बदलना तो ज़रूरी है न बदले तो है रुसवाई
    समझ कर तेरी दुनिया को बदलना चाहती हूँ

    बहुत खूब ...

    जवाब देंहटाएं
  2. बंदिश क्यूँ हो ज़माने की मुझे यार क़बूल
    नई राह नए मक़सद से चलना चाहती हूँ

    खूबसूरत गजल ...

    जवाब देंहटाएं