वो शाम ढल गई है जो उसका सिला तो दूँ
बैठूं करीब उसके उसे ख़ुद से मिला तो दूँ
बारिश की शोखियाँ जो कभी नागवार थीं
काँटों को सींच लूँ गुले- नगमा खिला तो दूँ
नासूर बन गई है जो ,फ़रेबी , हिजाब की
देखूं न चंद रोज़ उसे ये , सिलसिला तो दूँ
बैठूं करीब उसके उसे ख़ुद से मिला तो दूँ
बारिश की शोखियाँ जो कभी नागवार थीं
काँटों को सींच लूँ गुले- नगमा खिला तो दूँ
नासूर बन गई है जो ,फ़रेबी , हिजाब की
देखूं न चंद रोज़ उसे ये , सिलसिला तो दूँ
वाह...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल...
अनु