रविवार, 29 जुलाई 2012

हैरानियाँ

भला क्यूँ मुकद्दर पे हैरानियाँ हों
सदा आसमानी ही जब यारियाँ हों

बड़ी हों या छोटी रुलाया सभी ने
कभी तो ख़तम सारी मजबूरियाँ हों

न जाने क्या थे फ़लसफ़े उस शजर के
लगा झुक रहीं शर्म से टहनियाँ हों

कहो राब्ता रख के क्या होगा हासिल
नहीं जो वफ़ा के सिले दरमियाँ हों