गुरुवार, 15 सितंबर 2011

किसी आवाज़ का मोहताज न हो जाए तू.....

किसी आवाज़ का मोहताज ना हो जाए तू,
है मुमकिन किसी को याद भी ना आए तू

सफ़र में होके मुसाफिर की तरह ही रहना,
क्या ज़रूरत किसी के दिल में उतर जाए तू

किया है उस से जो वादा तो निभा भी लेना,
दिल की बातों में आकर ना मुकर जाए तू।

बुरा नहीं यूँ बनाना नये रिश्ते लेकिन
अज़ल से हैं जो उन्हे ही निभा ना पाए तू

मरके बन जाना है गर्दिश का इक तारा लेकिन,
जीकर भी तो किसी घर का दिया जलाए तू

बदल रहा है ज़माना ज़रा तू भी तो बदल
क्यूँ बूढ़ी रस्म का हर वक़्त जशन मनाए तू

बुधवार, 7 सितंबर 2011

नूर तुझ में भी वही है ....

मुकम्मल ज़िन्दगी है हर ख़ुशी है,

मगर तेरी कमी तो आज भी है।


उठा था इक कहीं तूफ़ान सा जब,

जाना मंज़िल कहीं खो चुकी है


अभी जीने है मुझ को ख़्वाब कितने,

फिर ये ज़िंदगी यूं कयूं रुकी है।


नहीं मिलता समंदर का निशां,

नदी को राह तो हरसूं मिली है,


बुरा है उस पर हंसना जो झुका है,

नज़र नीची मगर सोच बड़ी है।


हर शै में जो रोशन है 'शिरीन'
एक नूर तुझ में भी वही है !

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

सर्द मौसम आ गया

सर्द मौसम आ गया,

कोहरा घना छा गया!


कोई गिरा कोई चला,

कोई मंजिल पा गया!


दिल तोडा और छोडा

दूर लेकिन ना गया!


वो हंसा, कातिल बना,

दूसरों का क्या गया


मुरझाया कोई,कोई खिला,

मौसम ये रास आ गया


बुरा क्यूँ है...


शाम यूँ ही ढल जाना बुरा क्यूँ है.?
उसको याद न आना बुरा क्यूँ है ?

बेलौस मरासिम न हों न सही...
फ़र्ज़ ही को निभाना बुरा क्यूँ है ?

अक्स के असरार आसेबी तो क्या?
सच सब को दिखलाना बुरा क्यूँ है ?

समंदर साहिलों पे आकर सोचे तो
खुद ही में डूबते जाना बुरा क्यूँ है ?

सरगोशियाँ अफ़वाह न बन जाए कहीं
खुल के साथ निभाना बुरा क्यूँ है...?




"बेलौस" = बिना स्वार्थ के
"मरासिम"= रिश्ते
"सरगोशियाँ"= कानाफूसी
"अक्स" = प्रतिबिम्ब
"असरार" - रहस्य
"आसेबी"= डरावना

रविवार, 4 सितंबर 2011

ये लम्हे भी  यूँही गुज़र  जाने के गम हैं 
अभी  तो  बेशुमार  आँखें  यहाँ  नम  हैं

उतारो  उन को जो  सर  पर  हैं  जा बैठे 
बता दो अपने बाजुओं में कितना  दम है 

 है जो उसे भी लूट कर ले जाएँगे एक रोज़ 
फिर भी तो  बेज़ुबान  ख़ामोश  से हम हैं 

बदलना  दूसरों को ही  क्यूँ  इत ना ज़रूरी है 
झाँक अपने अन्दर भी क्या ऐब कुछ कम हैं